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Friday, 27 November 2015

डेयरी टेक्नोलॉजी नौकरी व स्वरोजगार के लिए उत्तम है

डेयरी टेक्नोलॉजी नौकरी व स्वरोजगार के लिए उत्तम है 


डेयरी के कामों के अंतर्गत कई प्रकार के दुग्ध उत्पादों का निर्माणउपार्जनभंडारण,प्रसंस्करण व विपणन शामिल हैं। इस काम के लिए डेयरी वैज्ञानिकों को नियुक्त किया जाता है,जो निर्माण की प्रक्रिया के हर पक्ष पर नजर रखते हैं। डेयरी तकनीशियन प्रयोग करके आकलन करते हैं कि विभिन्न तरह के चारे और पर्यावरण से जुड़ी स्थितियां दूध की गुणवत्तापौष्टिकता व मात्रा पर क्या प्रभाव डालती हैं। इसलिए डेयरी विशेषज्ञों की मांग उसी तहर बढ रही है जिस तरह से दूध उत्पादों की मांग दिनोंदिन बढ रही है
भारत एक कृषि प्रधान देश है। आज भी यहां की अधिकांश आबादी खेती-बारी पर आश्रित है। सरकार भी मानती है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि जनित उत्पादों का अहम रोल है। कृषि कार्य में सिर्फ खेतों की बुआईजोताई या निराई ही शामिल नहीं है। बागवानी से लेकर मत्स्य पालन और पशुपालन भी इसके अंतर्गत आता है। प्रदेश की सरकारें इन कार्यों में लगे लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए कई तरह की सहकारी योजनाएं चलाती हैं। कई तरह के कर्ज दिए जाते हैं ताकि किसान अपने पैरों पर खडे होकर एक स्वावलंबी जिंदगी जी सकें। डेयरी फार्मिंग भी इसी के अंतर्गत आने वाला एक क्षेत्र है। हमारी कृषि प्रधानअर्थव्यवस्था में डेयरी इंडस्ट्री की अहम भूमिका है। डेयरी फार्मिग में दुधारू जानवरों की ब्रीडिंग व देखभालदूध उपार्जन और फिर दूध से विभिन्न डेयरी प्रोडक्ट्स का उत्पादन शामिल है। दूध और दही के अलावा पनीरखोयाछाछलस्सी और पेडा का उत्पादन इस इंडस्ट्री के अंतर्गत एक बडे स्तर पर हो रहा है। डेयरी उत्पादों की मांगों को देखते हुए यह उद्योग भी विशालकाय है और इससे विदेशी मुद्रा भी आती है। अमूल कंपनी का नाम कौन नहीं जानता। वर्ष1946 में गुजरात में आणंद मिल्क यूनियन लि. (अमूलकी स्थापना से व्यवस्थित डेयरी उद्योग के विकास को दिशा मिली और इस विषय में शिक्षण व प्रशिक्षण को भी बढ़ावा मिला।
डेयरी के काम
डेयरी के कामों के अंतर्गत कई प्रकार के दुग्ध उत्पादों का निर्माणउपार्जनभंडारणप्रसंस्करण व विपणन शामिल हैं। इस काम के लिए डेयरी वैज्ञानिकों को नियुक्त किया जाता हैजो निर्माण की प्रक्रिया के हर पक्ष पर नजर रखते हैं। डेयरी तकनीशियन प्रयोग करके आकलन करते हैं कि विभिन्न तरह के चारे और पर्यावरण से जुड़ी स्थितियां दूध की गुणवत्तापौष्टिकता व मात्रा पर क्या प्रभाव डालती हैं। इसलिए डेयरी विशेषज्ञों की मांग उसी तहर बढ रही है जिस तरह से दूध उत्पादों की मांग दिनोंदिन बढ रही है। इन विशेषज्ञों के कामों पर नजर डालें तो दूध के विपणन या दूध को अन्य डेयरी प्रोडक्ट्स में तब्दील करने का काम भी शामिल है। डेयरी टेक्नोलॉजी मूलततकनीक व गुणवत्ता नियंत्रण पर ध्यान देती है। इस क्षेत्र में काम करने वाले दूसरे पेशवरों में डेयरी इंजीनियर्स की आवश्यकता होती हैइन पर डेयरी के व्यवस्थापन व रख-रखाव की जिम्मेदारी होती है। इसके अलावा मार्केटिंग पेशेवरों की भी यहां जरूरत होती है जो मिल्क प्रोडक्ट्स की मार्केटिंग व सेल्स से जुड़े काम देखते हैं। अगर आप इन कामों में रुचि रखते हैं तो यह क्षेत्र आपके लिए एक सुनहरा भविष्य प्रदान कर सकता है।
पाठयक्रम
तब की बात और थी जब डेयरी टेक्नोलॉजी वेटरेनरी साईंस और एनिमल हस्बेंड्री पाठयक्रम के तहत सिखाई पढाई जाती थी। आज यह उससे जुदा कोर्स है जिसकी पढाई अलग होती है। डेयरी टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में आज डिप्लोमास्नातकस्नातकोत्तर व डॉक्टरेट स्तर के कोर्स चलाए जा रहे हैं। यादातर संस्थानों में स्नातक स्तर के कोर्स में प्रवेश के लिए अखिल भारतीय स्तर पर लिखित प्रवेश परीक्षा आयोजित की जाती है। लिखित परीक्षा उत्तीर्ण होने वाले को आगे की प्रक्रिया के लिए चयनित किया जाता है। इसमें उत्तीर्ण होने के बाद संबंधित पाठयक्रम में नामांकन के लिए अभ्यर्थी चयनित किया जाता है।
व्यक्तिगत योग्यता
डेयरी टेक्नोलॉजी चूंकि विज्ञान का हिस्सा हैइसलिए विज्ञान में तो आपकी रुचि होना सबसे अहम है। इस क्षेत्र में प्रवेश पाने वाले अभ्यर्थी को मेहनतीकाम के प्रति समर्पित और जिज्ञासु होना चाहिए।
जिज्ञासु इसलिए कि यह काम थोडा उबाऊ है। इसके तहत काम कोई जरूरी नहीं कि शहरों में ही मिले। इसलिए इससे जुडने वाले लोगों को दूरस्थ अंचलों में काम करने और शहर की सुख-सुविधाओं से दूर रहने का आदी होना चाहिए। अगर ये विशेषताएं आपमें मौजूद हैं तो आप इस क्षेत्र को अपना सकते हैं।
अवसर व संभावनाएं
यह ऐसा क्षेत्र है जहां आप चाहें तो स्वरोजगार से अच्छी कमाई कर सकते हैं। कोई जरूरी नहीं कि आप शहर में रहकर ही कोई नौकरी करने को बाध्य हों। माना जाता है कि डेयरी टेक्नोलॉजी एक चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है जो प्रशिक्षित पेशेवरों के लिए कार्य के कई विकल्प उपलब्ध कराता है। यहां सार्वजनिक व निजी दोनों क्षेत्रों में रोजगार की गुंजाइश है। इन लोगों को डेयरी फार्मकोऑपरेटिव सोसायटीग्रामीण बैंकोंमिल्क प्रोडक्ट्स प्रोसेसिंग व मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स में कार्य के मौके मिलते हैं। गुणवत्ता नियंत्रण के अंतर्गत आने वाले विभाग भी इन लोगों की नियुक्ति करते हैं।
डेयरी तकनीक में दक्ष व्यक्ति चाहें तो अपना मिल्क प्लांटक्रीमरीआइसक्रीम यूनिट भी शुरू कर सकते हैं। हालांकि एक कंसल्टेंट को काम करने से पहले काफी अनुभव हासिल करना जरूरी है। इसके अलावा शिक्षण व रिसर्च में भी अवसर हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस विकल्प को चुनते हैं।
आमदनी व तनख्वाह
अगर आप स्वरोजगार के तौर पर काम करते हैं तो यह आपके मेहनत पर निर्भर करता है कि आपकी आमदनी कितनी होती है। डेयरी प्लांट्स में डेयरी टेक्नोलॉजी स्नातकों का चयन अमूमन प्रशिक्षु व शिफ्ट अधिकारी बतौर होता है। प्रशिक्षु को दो हजार रुपए स्टायपेंड के रूप में मिलता हैजबकि पूर्णतप्रशिक्षित अधिकारी को 8-15 हजार रुपए प्रतिमाह मिलते हैं। जनरल मैनेजर्स को 15 से 30हजार रुपए प्रतिमाह मिल सकते हैं। तनख्वाह और सुविधाएं अनुभव के आधार पर बढते जाते हैं।
प्रशिक्षण संस्थान
 सेठ एमसी कॉलेज ऑफ एग्रीकल्चर साइंसआणंद
 यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेजबेंगलुरु
 कॉलेज ऑफ डेयरी टेक्नोलॉजीरायपुर
 संजय गांधी इंस्टीटयूट ऑफ डेयरी साइंस एंड टेक्नोलॉजीपटना

कौन-सा कोर्स चुनें बारहवीं के बाद

कौन-सा कोर्स चुनें बारहवीं के बाद 


मर को देखते हुए बीजे यानी बैचलर ऑफ जर्नलिज्म कोर्स का क्रेज भी युवाओं के सिर चढकर बोल रहा है। इसके अतिरिक्त, आप अपनी रुचि के अनुसार डिजाइनिंग, एनिमेशन, मल्टी मीडिया, गेमिंग, हार्डवेयर-नेटवर्किंग, कम्प्यूटर अकाउंटिंग, फार्मेसी, क्लीनिकल रिसर्च, पैरामेडिकल आदि जैसे कोर्स करके भी आकर्षक करियर की सीढियां चढ सकते हैं।

सभी विकल्पों पर करें विचार
साइंस से बारहवीं करने वाले अधिकतर स्टूडेंट्स इंजीनियरिंग या मेडिकल फील्ड में ही जाने का सपना देखते हैं। वे किसी अन्य विकल्प पर विचार नहीं करते। दरअसल, आज तमाम कॉलेज और विश्वविद्यालय बारहवीं के बाद कई तरह के जॉब ओरिएंटेड कोर्स करा रहे हैं। इनमें प्रवेश से लेकर डिग्री के साथ-साथ प्रोफेशनल योग्यता हासिल कर जॉब मार्केट में प्रवेश किया जा सकता है। अगर आप विज्ञान से बीएससी करते हैं, तो इसके बाद न्यूक्लियर साइंस, नैनो-टेक्नोलॉजी, इंडस्ट्रियल केमिस्ट्री आदि में बिना बीटेक किए सीधे एमटेक कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त, कम्प्यूटर साइंस, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे अप्लॉयड फिजिकल सांइस से संबंधित विषयों या बॉयोटेक्नोलॉजी, फूड टेक्नोलॉजी, फिशरीज जैसे अप्लॉयड लाइफ साइंस से संबंधित विषयों में भी बीएससी कर सकते हैं।

अधिक जानकारी के लिए
किसी विश्वविद्यालय से प्रोफेशनल कोर्स करने के लिए इधर-उधर भटकने के बजाय उसकी साइट पर जाकर पता करें कि स्नातक स्तर पर कौन-कौन से कोर्स उपलब्ध हैं, उनकी अवधि कितनी है तथा उस पर कितना खर्चा आएगा? इस बारे में पत्र-पत्रिकाओं में संस्थान के बारे में प्रकाशित होने वाले विज्ञापनों को भी ध्यान से पढें, क्योंकि उनसे भी आपको पर्याप्त जानकारी मिल सकती है।

आर्ट्स को कम करके न आंकें
आज हर किसी की जुबां से साइंस का बखान सुनकर यह न समझें कि आर्ट्स से संबंधित विषय बेकार हैं और उनमें कोई आकर्षक करियर नहीं है। आज जमाना तेजी से बदल रहा है। ऐसे में कोई विषय बेकार नहीं है। इस बात को इसी से समझा जा सकता है कि आज अधिकतर आर्ट्स कॉलेज में एडमिशन के लिए कम से 70 से 75 प्रतिशत अंक की मांग की जाती है। इस स्ट्रीम के विषयों में भी अब खूब अंक मिलने लगे हैं। अगर आपकी रुचि कला वर्ग के विषयों में है, तो बेहिचक इसी रास्ते पर कदम बढाएं। हां, इस बारे में करियर संबंधी सभी विकल्पों पर भी जरूर विचार कर लें। अगर आप सही दिशा में कदम बढाते हैं, तो करियर की नई बुलंदियां छूने से आपको कोई रोक नहीं सकता।

बनाएं संतुलन
कोई भी निर्णय लेने से पहले दिल और दिमाग दोनों का संतुलन बिठाएं। दिल जहां आपको यह बताएगा कि आपको क्या करने में खुशी मिलेगी, तो वहीं दिमाग बताएगा कि क्या अच्छा है और क्या नहीं? इन दोनों के संतुलन से आप उपयोगी और सक्षम बनाने वाले करियर की ओर बढ सकते हैं। इसके साथ-साथ आज के प्रतिस्पर्धी दौर को देखते हुए सिर्फ एक ही विकल्प पर निर्भर रहने के बजाय अपने लिए एक से अधिक करियर विकल्प भी जरूर तैयार करें। इससे एक रास्ता किसी कारण बंद होने की सूरत में दूसरा रास्ता खुला रहेगा। इसके अलावा, अपनी पसंद का कोर्स चुनने से पहले इस बात की जांच भी जरूर करें कि क्या आपके पास उसके लिए आवश्यक योग्यता है? यदि इसमें कुछ कमी है, तो फिर इसे किस तरह डेवॅलप किया जा सकता है?
जरूरी बातें  : कोई भी कोर्स चुनने से पहले अपनी रुचि, योग्यता और उसमें उपलब्ध करियर विकल्पों पर जरूर विचार करें। दूसरों की देखा-देखी या पारंपरिक रूप से प्रचलित कोर्सों की बजाय अपनी रुचि के नए विकल्पों को आजमाने में संकोच न करें, क्योंकि अब इनमें भी आकर्षक करियर बनाया जा सकता है। अगर आर्ट्स में रुचि है, तो इसमें कदम आगे बढाने में बिल्कुल न झिझकें। इसमें भी बहुतेरे विकल्प हैं।

यदि निर्णय लेने में कोई दुविधा है, तो काउंसलर की सलाह अवश्य लें। बारहवीं के बाद बिना किसी लक्ष्य के पढाई न करें, बल्कि पहले दिशा तय कर लें और फिर उसके अनुरूप प्रयास करें। जो कोर्स करना चाहते हैं, उसे संचालित करने वाले सभी मान्यता प्राप्त प्रमुख संस्थानों के बारे में जरूर पता कर लें। 

Thursday, 26 November 2015

Shiv Yog Foundation

Shiv Yog Foundation

यह शरीर एक रथ है और पाँच इन्द्रियाँ इसको चलाने वाले घोड़े| इसी शरीर से ही तुम अध्यात्म की सीडी चड़ पाओगे| यदि यह शरीर स्वस्थ होगा तो ही तुम्हारी यात्रा पूर्ण होगी| यात्रा किसकी - नर से नारायण बनने की| यात्रा रोगी से निरोगी बनने की, निरोगी से योगी बनने की और अंत में योगी से शिवयोगी बनने की| स्थूल शरीर की सही सेवा करना एक शिवयोगी के लिए अनिवार्य है| स्थूओ शरीर को स्वस्थ बनाने के साथ ही साथ सूक्ष्म क्रियाएँ करना भी ज़रूरी हैं| एक मनुष्य सम्पूर्ण मनुष्य तभी बन सकता है जब उसके पाँचों शरीर शक्तिशाली हों| स्थूल शरीर के व्यायाम के साथ साथ सूक्ष्म शरीरों को ऊर्जा से भरना भी आवश्यक है|"

Good Morning.....


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Please read . . . Not joking

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Shirdi baba has seen YOU struggling with some thing. God says its over. A blessing is coming your way. If you believe in Sai Baba send this message on, please dont ignore it, you are being tested. Shirdi baba is going to fix two things (BIG)tonight in your favour. If you believe in Sai Baba, DROP EVERYTHING & PASS IT ON. TOMORROW WILL BE THE BEST DAY OF YOUR LIFE. DONT BREAK THIS CHAIN. SEND THIS TO 9 INDIAN FRIENDS.
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Android फ़ोन से घर बैठे 10000₹ से 1 लाख प्रति महीना

Android फ़ोन से घर बैठे 10000₹ से
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बेरोजगारो के लिए एक पहल
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Wednesday, 25 November 2015

ग़रीबों के बर्ताव को सुधारने की शिक्षा

ग़रीबों के बर्ताव को सुधारने की शिक्षा


30 जून के द हिन्दू में 'टीचिंग द पुअर टू बिहेव' शीर्षक से जी संपत (संपथ?, G Sampath) का एक लेख छपा था। प्रस्तुत है उसके लगभग पूरे हिस्से का नज़दीकी अनुवाद। 

विश्व बैंक (वर्ल्ड बैंक) की 2015 की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट (डब्लू डी आर) का शीर्षक है 'मानस, समाज और व्यवहार' (माइंड, सोसायटी एंड बिहेवियर)। इस सवाल का जवाब कि आखिर एक बैंक को इनसे क्या मतलब है, दो शब्दों का है: व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र (बिहेवियरल इकोनोमिक्स)। इस रपट में विश्व बैंक सरकारों को विकास की नीतियों में व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र अपनाने की सलाह पर बल देता है। रपट इस बात को दर्ज करती है कि अबतक सार्वजनिक क्षेत्र में अपनाई जाने वाली नीतियों का विश्लेषणात्मक आधार वो सामान्य अर्थशास्त्रीय सिद्धांत रहे हैं जिनमें यह मान्यता है कि व्यक्ति अपने सर्वश्रेष्ठ हित के अनुसार तार्किक आर्थिक कर्ता के रूप में व्यवहार करते हैं। मगर असल दुनिया में लोग अक़्सर अतार्किक तरीके से व्यवहार करते हैं और हमेशा अपने सर्वश्रेष्ठ आर्थिक हित के अनुसार बर्ताव नहीं करते। 

व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र मनोविज्ञान, नृविज्ञान, समाजशास्त्र व संज्ञानात्मक विज्ञान की मदद लेकर लोगों के सोचने और निर्णय लेने के तरीकों के बारे में और अधिक यथार्थवादी मॉडल बनाता है। जहाँ ये निर्णय आर्थिक दृष्टिकोण से ग़लत हैं, सरकारें वहाँ नागरिकों को सही निर्णय लेने की तरफ नीतियों के सहारे हल्के-से धकेल कर हस्तक्षेप कर सकती हैं। 

ऐसा लग सकता है कि इन सब बातों में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। मगर समस्या तब पैदा होती है जब हम देखते हैं कि व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्री अपना ध्यान सिर्फ ग़रीबों के बर्ताव पर देते हैं। आज की तारीख में ऐसा कोई सबूत नहीं है जिसके आधार पर कहा जा सके कि ग़रीबी उन्मूलन के लिए ग़रीबों के व्यवहार को नियंत्रित करना अर्थ के शीर्ष पर कब्ज़ा जमाए तबकों के व्यवहार को नियंत्रित करने से बेहतर विकल्प है। निश्चित है कि शीर्ष पर विराजमान वर्ग के व्यवहार को पूरी तरह तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता है - विशेषकर 2008 के आर्थिक संकट के बाद तो बिल्कुल नहीं। 

इस अर्थशास्त्र की दूसरी मान्यता यह है कि ग़रीब अमीर से कम समझदार हैं - इसे शोध पर आधारित एक नई 'खोज' की तरह प्रस्तुत किया जाता है और रपट भी इसे जुगाली करके पूर्णतः उगलती है। यह एक खतरनाक और राजनैतिक रूप से ग़लत विचार है। ज़ाहिर है कि इसे सीधे शब्दों में बयान नहीं किया गया है। इसे यूँ बयान किया गया है कि 'ग़रीबी का संदर्भ' व्यक्ति के मानसिक संसाधनों को कम कर देता है जिसके परिणामस्वरूप वो, खासतौर से उनकी तुलना में जो इस संदर्भ में स्थित नहीं हैं, एक खराब निर्णय लेने वाला साबित होता है। 

इन मान्यताओं का समर्थन करने के लिए कई शोध अध्ययनों को उद्धृत किया गया है। रपट में उल्लिखित एक ऐसा ही अध्ययन भारतीय गन्ना किसानों पर किया गया था जोकि वर्ष में एक बार, फसल कटाई के बाद, आय प्राप्त करते हैं। यह पाया गया कि किसानों का आमदनी से पहले का आई क्यू स्कोर बाद के स्कोर से दस अंक कम था! अर्थात, आदर्श स्थिति में उन्हें फसल कटाई से पहले महत्वपूर्ण वित्तीय निर्णय नहीं लेने चाहिए। व्यवहार पर ग़रीबी से पड़ने वाले असर के बारे में इस अंतर्दृष्टि से नीति निर्माण के लिए निहितार्थ तय होते हैं। उदाहरण के लिए, राज्य द्वारा कैश को 'उचित समय' पर या प्राप्तकर्ताओं के तर्कसंगत व्यवहार दर्शाने की शर्त पर ट्रांसफर किया जा सकता है।

रपट पूर्ण विश्वास से कहती है कि ग़रीबी से मानस का निर्माण होता है। इस मान्यता के बाद आज के चोटी के व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्रियों के लिए यह स्थापित करना मुश्किल नहीं रह जाता कि ग़रीब इसलिए ग़रीब हैं क्योंकि उनकी ग़रीबी उन्हें ऐसे तरीकों से सोचने व बर्ताव करने से रोकती है जो उन्हें ग़रीबी से बाहर ले जा सकते हैं। 

इस प्रकार ग़रीबी-उन्मूलन का केंद्र व उसकी ज़िम्मेदारी राज्य द्वारा नीति बनाने, रोज़गार, शिक्षा व स्वास्थ्य उपलब्ध कराने से हटकर ग़रीबों के व्यवहार-परिवर्तन पर डाल दी जाती है। ग़रीबी के संरचनात्मक कारण - बढ़ती असमानता व बेरोज़गारी - और पूँजी के मालिकों का व्यवहार इस बहस से ग़ायब कर दिए जाते हैं, तथा सार्वजनिक क्षेत्र की नीति की चिंता का विषय नहीं रह जाते।
इस संदर्भ में यह याद रखना वाजिब होगा कि 80 के दशक से शुरु होकर व 90 के दशक तक सम्मान और वित्तीय समर्थन हासिल करने तक अर्थशास्त्र की इस समझ का शास्त्रीय विकास नवउदारवाद के उठान के समानांतर चला है। इस क्षेत्र के सभी प्रमुख अर्थशास्त्रियों को इस रपट में बहुतायत से उद्धृत किया गया है। 

सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के लिए बाजार के नेतृत्व वाले समाधानों को प्रस्तुत करना नवउदारवादी सोच का एक आधारभूत उसूल है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अक़्सर ग़रीबी बाजार की विफलता का ही लक्षण होती है। मुक्त-बाजार के विचारक ग़रीबी व अन्य सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का कारण राज्य के हस्तक्षेप से बाजार में उत्पन्न विकार को ही मानते हैं। विश्व बैंक की रपट को शक्ल देने वाले अर्थशास्त्रियों को इसी आधार पर चुना जाता है कि वो इस सिद्धांत में विश्वास रखते हों। 

उदाहरण के तौर पर, 2000-01 की रपट का, जिसका शीर्षक था 'ग़रीबी पर प्रहार' (अटैकिंग पॉवर्टी), मूल ड्राफ्ट रवि कांबूर (Ravi Kanbur) द्वारा तैयार किया गया था जिन्हें जोसफ स्टिग्लिट्ज़ (Joseph Stiglitz) लाये थे। इस ड्राफ्ट में मुक्त बाजार के सुधारों से पहले ग़रीबों के लिए सामाजिक सुरक्षा ढाँचे खड़े करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया था। उल्लेखनीय है कि इन दोनों ही महानुभावों को रपट के आने से पहले ही विश्व बैंक बाहर का रास्ता दिखा चुका था! अंतिम रपट में सामाजिक सुरक्षा के ढाँचों को पहले खड़ा करने की जगह श्रम-सुधारों के साथ खड़ा करने की बात दर्ज की गई! 

विश्व बैंक के इतिहास के इस उल्लेख का प्रयोजन यह दर्शाना है कि मुक्त-बाजार विचारधारा को अपनाने से विश्व बैंक के अर्थशास्त्रियों को एक 'संज्ञानात्मक कर' चुकाना पड़ता है जिसके चलते वो ग़रीबी को ऐसे कोणों से नहीं देख पाते जिनसे इस विचारधारा का विरोधाभास हो। 

मुक्त बाजार के संदर्भ में कीन्स (Keynes) के सामाजिक सुरक्षा उपायों को सार्वजनिक नीति के एजेंडे से हमेशा के लिए बहिष्कृत किया जा सकता है। मगर इससे बढ़ती असमानता से उपजने वाले सामाजिक और राजनैतिक परिणामों से निपटने की समस्या जस-की-तस बनी रहती है। बढ़ता असंतोष राजनैतिक अस्थिरता पैदा कर सकता है। आखिर बाज़ारों के काम करने के लिए और उसमें बिकने वाली वस्तुओं के नियमित व निर्बाध प्रवाह को सुनिश्चित करने के लिए यह ज़रूरी है कि बहिष्कृत जन को तमीज़ से रहना सिखाया जाए। यही वो बिंदु है जहाँ व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र प्रवेश करके मदद करता है। 

ग़रीबों के व्यवहार को बदलने के लिए उसे समझना ज़रूरी है। यही वो समझ है जिसे व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्री सूत्रों में बाँधकर ज्ञान का रूप देने का वादा कर रहे हैं। रपट अवश्य ही स्वीकारती है कि अमीर, अर्थशास्त्री और विश्व बैंक के कर्मचारी भी संज्ञानात्मक भ्रम में मुब्तिला हो सकते हैं। 

मगर अपने 230 पृष्ठों में रपट कहीं व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र से प्रेरित नीतिगत हस्तक्षेप का एक भी ऐसा काल्पनिक उदाहरण तक प्रस्तुत नहीं करती जिसका निशाना, उदाहरणार्थ, अरबपति निवेशक हों। इसके बावजूद कि ग़रीबों की तुलना में यह एक ऐसा वर्ग है जो किसी देश की आर्थिक दशा व दिशा पर कहीं अधिक प्रभाव रखता है। एक ग़रीब किसान के वित्तीय निर्णयों को नज़दीक से नियंत्रित करने से कहीं ज़्यादा फायदेमंद और निश्चित परिणाम इन निवेशकों के व्यवहार को बदलने से प्राप्त हो सकते हैं। (उदाहरण के लिए, उन्हें ऐसे नियंत्रित करके कि वो अपनी अरबों की पूँजी सट्टा बाजार में लगाने के बजाए उत्पादक क्षेत्र में लगाएँ।)

इस पूरी रपट में व्यवहार (behaviour) और कर्म (action) की संकल्पनाओं के समान इस्तेमाल से एक भ्रामक समझ व्याप्त है। 'व्यवहार' की शब्दावली अपने मूल और सटीक रूप में जानवरों के संदर्भ में और वस्तुओं के वैज्ञानिक अवलोकनों में प्रयुक्त होती है। व्यवहारों का अध्ययन पैटर्न तलाशने के लिए किया जाता है। जिस हद तक इंसान भी जानवर हैं उस हद तक यह कहा जा सकता है कि वो भी व्यवहार प्रदर्शित करते हैं। मगर जो चीज़ उन्हें इंसान बनाती है वह उनकी व्यवहार के पैटर्न से परे जाने की ही क्षमता है। अन्य शब्दों में, उनके कर्म करने की क्षमता।

राजनैतिक सिद्धांतकार हाना अरेन्ड्ट (Hannah Arendt) अपनी कृति द ह्यूमन कंडीशन में तीन प्रकार की गतिविधि की बात करती हैं - श्रम, कार्य और कर्म। इन तीनों में जो चीज़ कर्म को रेखांकित करती है वह इसका राजनैतिक चरित्र है। जब व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र ग़रीबी को 'संज्ञानात्मक कर' की तरह निरूपित करता है तो वह 'कर्म', अर्थात ग़रीब की राजनैतिक क्रिया को सूत्र से खारिज करता है। 

जैसे-जैसे लोकतान्त्रिक राष्ट्र-राज्य अपने वजूद को भूमंडलीय वित्तीय बाजार, WTO जैसी अलोकतांत्रिक संस्थाओं और GATTS जैसे व्यापर समझौतों के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए पुनरानुकूलित कर रहे हैं वैसे-वैसे वे अनिवार्यतः अपने ही नागरिकों की आकांक्षाओं के प्रति कम ज़िम्मेदार होते जाएँगे। चूँकि खुला दमन हमेशा सबसे कामयाब या सस्ता नीतिगत विकल्प नहीं होता है इसलिए आर्थिक रूप से बहिष्कृत वर्गों को वैचारिक स्तर पर पालतू बनाने के तौर-तरीके ढूँढना लाज़मी हो गया है। ग़रीबों के मानस और व्यवहार पर केंद्रित ज़ोर इसी चिंता का परिणाम है।

जिस हद तक व्यवहार-संबद्ध अर्थशास्त्र ग़रीबी में स्थित लोगों पर अपना ध्यान केंद्रित करता है - और यही धारा इस वर्ष की वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट में हावी है - यह नवउदारवाद के राजनैतिक प्रबंधन के तरकश का सबसे नया तीर ही है। 

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